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46 / हरीश भादानी

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राम-राज युग की
ओ, बैदेही पीड़ाओ !
कितना और पढाऊँ तुमको ?
सच है
मौसम के हठियाए लव-कुश
हर क्षण
तुम्हें कुरेदा करते,
मौनी मन को टोका करते,
पूछा करते
ये चल्कला जिन्दगी की परिभाषा
यह भी सच है
इतिहासों में मँढने का
लोभी-आदर्शी राम,
तुम्हारे आगे
सीधी रेखाओं सा खिंच जाता है,
चुभ जाताह है,
राम-राज युग की
ओ, सीताई पीड़ाओ !
सच है,
तुम अनकही कथाओं के
पिघले लावा को
कोरों की खोहों में
अटकाए रखती,
लव-कुश की जिज्ञासा को बहलाए रखती
लेकिन
मर्यादा का संस्कार लेकर जन्में
ये लव-कुश
अश्वमेघ के आकर्षण को छोड़ नहीं पाएँगें,
और स्वयं का अहम् उभारे टकराएँगे
एक बार फिर और
तुम्हारा सत्य तौलने समझौता कर लेंगे,
ओ, मेरे धीरज के
बाल्मीकि के मन की तपोषनी शोभा-पीड़ाओं !
यश-कुबेर यह राम
सुखों के अन्वेषी-
ये लव-कुश
तुम्हें तराजू, पर रखने आएँ
इससे पहले तुम
विस्मृतियों की धरती में गड़ जाओ
खो जाओ, अस्तित्व मिटालो,
मैं धीरज का वाल्मीकि
फिर रामायण पूरी कर पाऊँ
वेद-ऋचाओं जैसे राज पुरुष की
अनुयायी पाठक लव-कुश की
एक नई टीका लिख जाऊँ
और अनावृत करता जाऊँ
राम राज को चौराहे पर
ताकि अनागत से, बस जन्म लिया चाहने वाले
मेरे ये लोक-युगी आयाम
नया संदर्भ ले सकें !