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63 / हरीश भादानी

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हर सुबह के साथ
मैं अभावों के हुज़ूम में बहता हुआ,
नारे लगाता,
धूप खाता
कड़वी भाप से बुझाता प्यास
और पांवों के तले दम तोड़ती
सलोनी याद की हर लाश पर
मैं नफ़रत के बहानों का
कफ़न ढाले चला जाता
सांझ तक अपनी गली में लौट आता-
द्वार बैठा देखता हूँ-
आदमी के बेटे
पेट की मटकी बजाते हैं,
एक रोटी बाँटते-झगड़ते
और सुबह होने तक
मरे-से लेट जाते हैं
और मैं भी
नींद के आगोश में
बेहोश होना चाहता हूँ
पत्थराना चाहता हूँ
पर सियाही में डूबी हुई यह रात-
मासूम यादों की ऐंठी हुई लाशों पर
ढाले गये कफ़न
उतार लेती,
और फिर हर एक लाश उठ-उठ
मेरी आँखों की झुलसती ड्योढ़ियों पर
नाचती है
इन बेजान पुतलियों से
घिरा-घिरा मैं जी रहा हूँ
जिये ही जा रहा हूँ !
हर सुबह के साथ
फिर अभावों के हुजूग में
बहता हुआ
नारे लगाता हूँ, झण्डे उठाता हूँ
और पांवों के तले
मासूम यादें.....!