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68 / हरीश भादानी

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हमारे भ्रूण पर
ज़हर की झिल्लिया चढ़ी थी,
जन्मे हम
सुलगते पिण्ड जैसे
दुख गई ममता जिसे छूकर
सूखे हुए तालाब सी
दरारें खाकर फट गयी थी
दूध आँचल का
हमसे भरी-भरी वह गोद झलसी
बिना धुँआ उठाए
काठवाले कोयले जैसी जली
जल-जल
राख जैसी हो गई वह एक दिन
मगर जीते रहे हम,
और अब जी रहे हैं
कड़वी सांस फूँकें जा रहे हैं
आग सी आवाज़ फेंके जा रहे हैं
क्या करें हम
जो हमारे सांस लेने से
गुलाबों पर ठण्डी,
उनींदी ओस का
दम घुटता है; घुटे
हमारी फूली-तनी
नसों को देख कर
इन खून खोरों की
बीरादरी से झांकती आँखे-
चौंधियाती हैं, चुँधे
हमेशा के लिए मुझे
हमारी फैलती परछाइयों से
सपनों के सौदागरों पर
खतरे की उदासी तिरती है, सिरे
हमारी भारी आहटें सुनकर
वैसाखियों पर चल रहे
कमजोर दिल की धड़कन
टूटती हैख् टूट जाए;
हम क्या करें?
हम अनागत फसलों के पहलुए
जो खुरदरी
कूबड़ ढहाने का
दम-खम लिए पैदा हुए हैं,
लो ! हमारी छटपटाहट की गवाही
हमारे भ्रूण पर
जहर की झिल्लियाँ चढ़ी थी !