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69/ हरीश भादानी

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ओ, आदमी को संज्ञा से
ज्ञापित शरीरों !
तुम नपुंसक सपनों को जनम दो,
सुखो ईख जैसी आस्थाओं से,
रस खींचने
तुम दाँत पीसो, हड्डियों को चिटखिटाओ
ओ, किसी शमशान के
पहरुए सी ठठरियो !
नम्रताएँ ढाँपने तुम कुंठाएँ बटोरो,
थेगड़े लगे आदर्श ओढो,
बूढे़ घड़ैयो ! तुम नये के नाप पर
कुबड़े घड़ो, घुरे उठाओ,
ओ, उजाले से डरे हुए
अँधेरे पर आसक्त श्रोगो !
अधे बने भटका करो,
अपाहिज जिन्दगी भी जीने के लिए तुम
पौरुषहीन,
कामुकों सरीखे छटपटाओं,
सुनो, इससे तो अच्छा है
कि तुम स्वयं
अपने लिए ही
कब्र खोदा,
गड़ जाओ इसी क्षण
आत्महल्याएँ करो,
करो विश्वास-
हमें तुम्हें विधिवत जलाएँगे
कि कलको
जन्मनेवाली पीढ़ी तुम्हारी ही तरह
बीमार न हो
ताज़ा महकती हवाओं में
तुम्हारे रोग के कोड़े कहीं चिपकें नहीं
और सुर्खियों की पहुँच के सीमान्त तक
तुम्हारा दास कोई रह न पाए;
ओ, ताड़पत्ती पोथियों के पूजको !
लो, पुन्य लूटो,
वक्त रहते ही मरो,
वचन ले लो भले हमसे
तुम अपनी लाश के सम्मान का
ओ, आदमी की संज्ञा से
ज्ञापित शरीरो !