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71/ हरीश भादानी

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यह धरती
बहुत मैली हो गई है दोस्त !
हर एक बरखा बाद
पहले से अधिक
दल-दल, ढहे और खंडहर दीखते हैं,
और पानी
खंड-खोहों में सिमट कर बदलता है स्वाद
जन्म देता
घड़ियालों, मगरमच्छों
बड़े मुँह की मछलियों को,
और फिर पानी कहाँ से लाए आदमी
यह धरती धोने के लिए
जो पहले से अधिक मैली
बहुत मैली हो गई है दोस्त !
अनेको बार
यह धरती धोई गई है खून से
सूख कर गीली सुर्खियाँ
स्याद पतैं बन गई हैं,
फट गई दरारों में उगी है घास,
यह धरती पहले से अधिक भद्दी
बहुत भद्दी हो गई है दोस्त !
दिन-ब-दिन
बढ़ती हुई यह गन्दगी
धोई नहीं गई शायद कभी भी आग से
इसे हम
आग से धाएँ, हमारे दोस्त !
इस तरह साँसें कि-
लपटें फैलती आएँ दिशाओं में,
हम ईधन झांकते जाएँ
और फिर
पेशानियों से बरस जाए
एक बरखा
भीगी-भीगी, सांवली सपाट माटी
मुट्ठियों में भरे,
खूबसूरत कोंपलों को
फूटते देखें हमारी हसरतें
और इन हसरतों की ही खातिर,
आ यह धरती
आग से धोएँ हमारे दोस्त
जो पहले से अधिक मैंली
बहुत मैली हो गई है !