Last modified on 24 जून 2008, at 01:29

नरेन्द्र शर्मा

77.41.26.27 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 01:29, 24 जून 2008 का अवतरण

नरेन्द्र शर्मा की रचनाएँ

नरेन्द्र शर्मा
Narendra sharma.jpg
जन्म 1913
निधन 1989
उपनाम
जन्म स्थान जहाँगीरपुर, जिला खुर्जा, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
शूल-फूल (1934), कर्ण-फूल (1936), प्रभात-फेरी (1938), प्रवासी के गीत (1939), कामिनी (1943), मिट्टी और फूल (1943), पलाश-वन (1943), हंस माला (1946), रक्तचंदन (1949), अग्निशस्य (1950), कदली-वन (1953), द्रौपदी (1960), प्यासा-निर्झर (1964), उत्तर जय (1965), बहुत रात गये (1967), सुवर्णा (1971), सुवीरा (1973)
विविध
पंडित नरेन्द्र शर्मा ने हिन्दी-फ़िल्मों के लिये बहुत से गीत लिखे। उनके 17 कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक जीवनी और अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इसके अलावा उस समय की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं 'सरस्वती'में 1932 में और 'चांद' में 1933 मेँ इनकी प्रारम्भिक रचनाएँ और स्फुट कविताएँ व समीक्षा इत्यादि छपती रही हैं।
जीवन परिचय
नरेन्द्र शर्मा / परिचय
कविता कोश पता
www.kavitakosh.org/{{{shorturl}}}

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?? इतिहास की पुकार, करे हूँकार, ओ गँगा की धार, निर्बल जन को, सबल सँग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ? विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?? इतिहास की पुकार, करे हूँकार, ओ ग़ँगा की धार, निर्बल जन को, सबल सँग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहूँ हो क्यूँ ? इतिहास की पुकार, करे हूँकार,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ??

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,

अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ? व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज, व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ? ओ ग़ँगा की धार, निर्बल जन को, सबल सँग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहूँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिनजन, अज्ञ विहिननेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ? व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज, व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ? विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ऑ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? १९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)208.102.250.216

माया

दिखाती पहले धूप रूप की , दिखाती फ़िर मट मैली काया  ! दुहरी झलक दिखा कर अपनी मोह - मुक्त कर देती माया  !

असम्भाव्य भावी की आशा , पूर्ति चरम शास्वत आपूर्ति की , ललक कलक में झलक दिखाती अनासक्त आसक्तिमुर्ति की  ! अंत सत्य को सुगम बनातू हरी की अगम अछूती छाया  !

मन में हरी , रसना पर षड- रस , अधर धरे मुस्कान सुहानी  ! हरी तक उसे नचाती लाती हरी की जिसने बात न मानी ! शकुन दिखा कर अँध तनय को , हरी - माया ने खेल दिखाया  !

संग्न्याहत हो या अनात्मारत आत्म मुग्ध या आत्म प्रपंचक , पहुँचाया है हर झूठे को , माया ने झूठे के घर तक  ! लगन लगा कर , मोह मगन को , मृग लाल , जल निधि पार कराया  !

अंहकार को निराधार कर , निरंकार के सम्मुख लाती  ! गिरिजापति का मान बढ़ाने रति के पति को भस्म कराती  ! नेह लगाया यदि माया से , निज को खो , हरी - हर को पाया  !

अपनी समझ लिए हर कोई , करता रहता तेरी - मेरी  ! वोह अनेक जन मन विलासिनी एक मात्र श्री हरी की चेरी  ! मैंने इस सहस्ररूपा को , राममयी कह शीश झुकाया  !

सँरचना : स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा / सँकलन : लावण्या