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एक दिन / मुकेश मानस

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एक दिन
कालेज जाने के लिये घर से निकला
तो चौंक पड़ा मैं
सहसा मुझे लगा कि मानो
किसी और ही दुनिया में आ गया हूँ

मैंने पीछे मुड़कर देखा
पिछ्ले कई वर्षों से जिस फ्लैट में
रहता आया था मैं
वह वहाँ नहीं था
उसकी जगह खिला हुआ था
                     एक फूल

सड़क एकदम खाली थी
और उस पर सैकड़ों बच्चे
रंग-बिरंगे कपड़ों में किलकारियाँ मारते
चले आ रहे थे बेख़ौफ़

इतनी खाली सड़क
और उस पर इतने सारे बेख़ौफ़ बच्चों को
पहले कभी नहीं देखा था मैंने

हैरत और विस्मय से भरा मैं
पैदल ही चल पड़ा रिंग रोड़ की तरफ़
ताज्जुब की बात थी कि यहाँ रोहिणी से भी
नज़र आ रही थी महरौली में खड़ी कुतुबमीनार
और मैं बड़ी आसानी से देख पा रहा था
सफ़दरज़ंग का मकबरा और लोट्स टैम्पल

मैंने हैरत से आँखें बंद कीं और खोलीं
लगा मानो लालकिला था मेरे आगे
जैसे दूर से दिखता है पहाड़
दिख रहा था वैसा ही अदभुत

रिंग रोड़ पर कम ही थे लोग
और बसें आकर रुक रही थीं कतार में
झुंड की झुंड चली आ रही थीं डीटीसी की बसें
मैं हक्का-बक्का सा चढ़ गया एक बस में

बस में थीं बहुत सी सीटें खाली
कंडक्टर मेरे पास आया
और बड़ी ही नरम और मुलायम आवाज़ में बोला
“कहाँ का टिकट दूँ भाई साहब”

कालेज जाने वाली सड़क पर मैं उतर गया
यहाँ भी नज़ारा अदभुत था
वहाँ नहीं थीं ऊँची-ऊँची बिल्डिगें और भवन
कोर्ट और जेलनुमा दफ़्तर
उनकी जगह खड़े थे विशालकाय पेड़
जिनके नीचे पसरी हुई थी घनी छाँव

मैं उनमें से एक के पास गया
तो एक खास लय और ताल में
बरसने लगे पत्ते उसके
पेड़ कोई संगीत सुना रहा था

अपने जीवन में पहली बार सुनी थी मैंने
किसी पेड़ की कोई आवाज़

जहाँ अब सौंदर्य से लबरेज़
एक हरा-भरा बगीचा था
जिसमें रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ रही थीं
वहाँ था पहले एक बड़ा थाना
और उसके पीछे जेलख़ाना
जिससे ग़ुज़रते हुए मैं अक्सर
एक भय से काँप जाता था
और अब ये आलम था कि मैं
वहाँ से जाना नहीं चाहता था

रेल की पटड़ी पर बना फाटक गायब था
दूर-दूर तक
किसी रेल के आने की कोई गुँजाईश नहीं थी
कहाँ गईं रेलें ठसाठस भरी हुई
लोगों को दूर दराज़ से लादकर लाती हुई?

“आपको पता नहीं”
बगल से गुजरते एक आदमी ने मुझसे कहा
“रेलें अब नहीं आयेंगी यहाँ
वो जा चुकीं हैं वापस
कभी ना आने के लिये
दिल्ली अब खाली हो गई है
या यूँ कहें
कि अब इस देश में एक नहीं
कई दिल्लियाँ हो गई हैं
है ना ताज्जुब की बात”

ताज्जुब की बात तो थी ही
क्या सचमुच दिल्ली हो गई थी खाली
क्या सचमुच दिल्ली की आपा-धापी
जीवन को जीने की कला में बदल गई थी……!!
  
2002