Last modified on 8 सितम्बर 2010, at 16:40

पखेरू / गोबिन्द प्रसाद

Mukeshmanas (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:40, 8 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद |संग्रह=कोई ऐसा शब्द दो / गोबिन्द…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


भोर का
बावला पाखी मैं
भटकता हुआ दिन
मेरे साथ
गुम्बदों के अंक में
सिमट जाएगा

और पश्चिम दिशा
का संसार रात होने तक
उन कंगूरों पर छा जाएगा
-सहसा गंध-सा

डूबती सांझ के
उस उजले आलोक में
स्मृति के कैनवास पर
देर तक काँपेगी एक छायामय आकृति
फिर;चाहे वह
झरती हुई पत्ती
हो,या ...तुम!

सूरज फिर उगेगा
पूरब की ओर से!!