इस निजन्धरी मकान के
किसी कोने में
भूल गया बचा कर
- थोड़ा सा उजाला
कई छोटी छोटी उम्र
जीते हैं; भटक कर
याद में नहीं उतरता;वह उजाला
लौट आते हैं स्वप्न में जागकर
कभी देह के उस द्वार पर
जहाँ से देख भर लेते हैं; वह उजाला
उजाला जैसे
समुद्र में चट्टा नवत् कोई चेहरा
काँपती लहरियों पर
निष्कम्प लौ सा
काल के अश्व पर सवार
दिशाओं मे छेड़ जाता भोर का अभियान
उजाला-
जिस में कौंधती है तड़ित बन
कविता की कोई पंक्ति
लड़ते रह्ते हैं हम
जिस की बिना पर जीवन से तमाम उम्र