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निरीह सपने / मनोज श्रीवास्तव

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निरीह सपने
 
 
सपनों के छौने मृग
कुलांचे तो भरते हैं
नींद के जंगल में,
पर, कभी-कभी चाहते हैं
गाफिल टहलना भी
नींद से बाहर
 
चूंकि सपने भी समझते हैं
आज़ादी का मतलब,
इसीलिए, नींदखाने से रिहा हो
जागती आँखों में
दिवास्वप्न बन
बेखटक विचरते हैं
 
आँखों के घर में
सपनों के रहने का
एक ही फ़ायदा है
नानाविध आंसुओं की
निर्झर बरसात में
सपने नहा-धो
सुघड़-निखर जाते हैं
 
नींद में कैद सपने
निकलकर बाहर
विचर नहीं पाते हैं
कविता के अंदर,
काहिल पहाड़ जैसे
अडिग पड़े रहते हैं
गुर्राते हैं, कराहते हैं
भिनभिनाते हैं, फड़फड़ाते हैं
सिसकते हैं, सुबगते हैं
मुस्कराते हैं, ठहठहाते हैं
पर, करवटें बदलकर
बैठकर, खड़े होकर
जीवन के तल पर
चल नहीं पाते हैं
क्योंकि वे सपने हैं
आहत आशाओं
अवगुंठित कुंठाओं
दमित इच्छाओं
के तारों से बिंधे हुए
 
चूंकि सपने तरल नहीं हैं
इसलिए नहीं बह पाते हैं
इस खाबड़ जमीन पर
नित्यमान, धाराप्रवाह
सींच नहीं पाते हैं
बालुई-ऊसर
जीवन के किनारे.