माँ सुबह-सवेरे आवाज़ लगाती
उठो मुनिया! स्कूल को जाना है-
कहकर, झाडू उठाकर काम पे जाती है ।
मुनिया, उठती चलती
आँखे मलती
गिरती संभलती
मुँह धोती, वर्दी पहनती
बस्ता उठाकर स्कूल को चलती
गलियों, बस्तियों, रेलवे लाइनों
से गुज़रती
हाथ में मोर का पंख धरती
मुनिया
स्कूल पहुंचते ही सहम जाती है ।
मोर के पंख वाली मुट्ठी
और ज़ोर से कस जाती है
डरते, झिझकते, मनौती करते
कक्षा के द्वार पर आती है
अध्यापिका कक्षा में बच्चों को
बाल दिवस पर भाषण देती है
बताती है-
चाचा नेहरू कहते थे-
'बच्चे देश का भविष्य हैं'
दूसरे ही पल
अध्यापिका की नज़र
मुनिया पर पड़ जाती है
देखते ही मुनिया को
ज़ोर से चिल्लाती है -
तुम...! आज फिर देर!
तेज तमाचे की आवाज़
के साथ अध्यापिका अनुशासन
का पाठ पढ़ाती है ।
तपती धूप में
मैदान के चक्कर कटवाती है
मुनियां थककर
गिर जाती हैं,
मुझे चाचा नेहरू याद आते हैं ।
- बच्चें अक्सर स्कूल में अध्यापक की मार से बचने के लिए दुआ मनाते हुए हथेली पर मोर का पंख रखते हैं ।