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स्त्री / ममता किरण

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स्त्री झाँकती है नदी में
निहारती है अपना चेहरा
सँवारती है अपनी टिकुली, माँग का सिन्दूर
होठों की लाली, हाथों की चूड़ियाँ
भर जाती है रौब से
माँगती है आशीष नदी से
सदा बनी रहे सुहागिन
अपने अन्तिम समय
अपने सागर के हाथों ही
विलीन हो उसका समूचा अस्तित्व इस नदी में।

स्त्री माँगती है नदी से
अनवरत चलने का गुण
पार करना चाहती है
तमाम बाधाओं को
पहुँचना चाहती है अपने गन्तव्य तक।

स्त्री माँगती है नदी से सभ्यता के गुण
वो सभ्यता जो उसके किनारे
जन्मी, पली, बढ़ी और जीवित रही।

स्त्री बसा लेना चाहती है
समूचा का समूचा संसार नदी का
अपने गहरे भीतर
जलाती है दीप आस्था के
नदी में प्रवाहित कर
करती है मंगल कामना सबके लिए
और...
अपने लिए माँगती है
सिर्फ नदी होना।