सुबह के कोहरे को
देती है चुनौती
दो आकृतियां
जो उभर आती है
शहर की सूनी सड़क पर
कडकती ठंड में
ठिठुरती हुई।
वह नन्हीं आकृति
कांपती है - हांफती है
कभी-कभी जोर से
थाम लेती है
वह हाथ जो खुद जर्जर हो चला है
पर न जाने
कौन-सी मजबूरी है
कि बूढ़ी हड्डियां
हर रोज बिना नागा
चल पड़ती हैं
सूनी सड़क पर
हाथ थाम कर
अपनी नन्हीं पोती का
जिसके हाथ ने
थामी है एक बांस की झाडू
और तसली
उसकी नन्हीं
काली आंखें
खाली है जो तलाशती है
शायद ...अपने हिस्से की खुशी
ये आंखे देखती हैं -
हर रोज
स्कूल जाते बच्चे
सड़कों के किनारे लगे
राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के
बड़े-बड़े बैनर
बेटी बचाओ,
उसे पढ़ाओ आदि नारे
पर ये सब
नज़र आते हैं
लज्जित और बेचारे
जब वह
कड़कती ठंड में
अपनी नन्हीं हथेलियों से
झाडू पकड़ती है
मैला उठाती है
तसली में भरती है
तब वह शायद
अपने आप से हर बार
एक ही प्रश्न करती है
क्या यही है मेरा जीवन?
तब सरकार के सारे दावे
जर्जर और खोखले हो
ढह जाते हैं।
और हम
सारी राज्य-व्यवस्था को
मैले के ढ़ेर सा पाते हैं।