सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता
केश-वन में झिलमला कर डूब जाता
स्वप्न-सा निस्तेज गतचेतन कुमार
कमल तल में खिले सर के,
शीर्षासन से।
जागरण की चेतना से मैं नहा उट्ठा।
हवा है मेरी असंख्य
दृष्टियाँ अनुक्षण परस्पर देखतीं खुल-मुँद,
असंख्य
चपल शीतल-दृग
पुलक पल लिए, अपरम्पार।
मैं कमल के नाल पर बैठा हुआ हूँ
एक एड़ी पर टिकाए मौन।
---
चट-चटककर कमर बोली...(क्या?)-
"घूमती लचती दिशाओं में
मैं पताका-सी।"