संसार में मेरा मुग्ध भ्रमण
धूल-धूसरित वेश में ।
कभी मेरा आलिंगन करती
कुसुम की सुरभि,
कभी मुझे पुकारती
कोयल की मधुर बोली ।
नयन बनते बावरे, निहार
निखिल के सभी रंग ।
मन मेरा ले जाए जहाँ, जाना वहाँ
प्रेम के सन्निवेश में ।
पथ नहीं कोई लिया, जहाँ धरूँ पग
वहीं बनाऊँ निज पगडंडी ।
तेज-छाया के लोक में प्रसन्न
वीणा पर पूरिया छेड़ ,
एक आनंद की जलसमाधि में
बहती जाए तरणी मेरी ।
मैं ही रहूँ विलसता सभी के संग और
मैं ही रहूँ अवशेष में ।
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : पारुल मशर