Last modified on 30 सितम्बर 2010, at 20:09

हाथ आकर लगा गया कोई / कैफ़ी आज़मी

हाथ आ कर गया, गया कोई । मेरा छप्पर उठा गया कोई ।

लग गया इक मशीन में मैं भी शहर में ले के आ गया कोई ।

मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी इश्तिहार इक लगा गया कोई ।

ऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी बेच के अपना खा गया कोई ।

अब कुछ अरमाँ हैं न कुछ सपने सब कबूतर उड़ा गया कोई ।

यह सदी धूप को तरसती है जैसे सूरज को खा गया कोई ।

वो गए जब से ऐसा लगता है छोटा-मोटा ख़ुदा गया कोई ।

मेरा बचपन भी साथ ले आया गाँव से जब भी आ गया कोई ।