Last modified on 5 अक्टूबर 2010, at 13:30

अजनबी मनुष्य / अमरजीत कौंके

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:30, 5 अक्टूबर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्यों मेरे लिये
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में जीता था
जो मेरी
साँसों में बसते थे

यह हादसा कैसे हुआ
कि मैं उनसे आँखें चुराने लगा
मैं उनकी मुसीबतें भुलाने लगा
जिन्हें कितनी बार
मैंने उनके साथ
अपने जिस्म पर झेला
वह तल्ख़ दर्द
कितने हमारे आँसू साँझे
हमने एक दूसरे के पोरों से पोंछे
एक दूसरे की राहों के काँटे
कितनी बार हमने
अपनी पलकों से समेटे

पता नहीं
वक़्त अचानक
क्या हादसा कर गया
कि मेरे भीतर
जो इन सब का अपना था
वह कैसे अचानक
धीरे-धीरे मर गया

उसके स्थान पर
मेरे भीतर
यह अजनबी-सा मनुष्य
कौन
प्रवेश कर गया

कि मेरे लिए
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में बसता था
जो मेरी साँसों में जीते थे ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा