पाप इतना
कि पृथ्वी भी काँप उठी
नशा इतना
कि आकाश डगमगाया
एक क़दम इधर
एक क़दम उधर
मन की थाली में
पानी बहुत छटपटाया
इस पार बहती
मर्यादा की गंगा
उस पार प्यास का
ज़लज़ला आया
एक और पाँव में
परम्परा की बेड़ियाँ
दूसरी ओर दहकती
ज्वाला का साया
बिगुल की आवाज़
बजता हुआ डमरू
पत्तों की पाजेब में
समय खनखनाया
बहुत कुछ पिघला
जिस्मों के लावे में
बहुत कुछ दहकती
अग्नि में गिराया
मर्यादा भस्म हुई
हवनकुण्ड में यूँ
रूहों ने जिस्मों का
यज्ञ जब रचाया
गूँजी आकाश तक
मंत्रों की ध्वनियाँ
मदहोशी में
कुछ सुना न सुनाया
शाँत हुई अग्नि जब
धीमी आवाज़ हुई
पता न चला कुछ
समझ न आया
पाप इतना
कि पृथ्वी काँप उठी
नशा इतना
कि गगन डगमगाया ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा