Last modified on 11 अक्टूबर 2010, at 11:31

घर और बाहर / लाल्टू

Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:31, 11 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाल्टू |संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू }} <poem> घ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


घर के आज़ाद तनाव में बाहर नहीं आ सकता
घर ही घर पकती खिचड़ी, होते विस्फोट, खेल-खेल में खेल
बाहर घर में एक ओर से आकर दूसरी ओर से निकल जाता है

घर बचा रहता अकेला, सिमटा हुआ
सिमटते हुए उसे दिखता बाहर
घर ही घर दिखती दुनिया रंगीन मटमैली

बाहर बसन्त
घर कभी गर्म, कभी ठण्डा
सही गलत के निरन्तर गीत गाए जाते घर में.

कभी कभी धरती अपनी धुरी से ज़रा सी भटकती है, विचलित होता है घर
कभी ज़मीं से ऊपर सोचने को कितना कुछ है उसके पास
घर ऊब चुका होता है नियमबद्ध दिनचक्र से
घर चाहता है, एकबार सही हो ताण्डव, दिन बने रात, रात में चौंधियाए प्रकाश

बाहर घर को छोड़ देता है उसकी उलझनों में
घर ही घर लिखे जाते हैं रात और दिनों के समीकरण
फिर कालबैसाखी के बादल आ घेरते घर को
गहरे समुद्र में डुबकियाँ लगाता सोचता घर
वह कितना होना चाहता है आज़ाद.