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धान जब भी फूटता है / बुद्धिनाथ मिश्र

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धान जब भी फूटता है गाँव में
एक बच्चा दुधमुँहा
किलकारियाँ भरता हुआ
आ लिपट जाता हमारे पाँव में।

नाप आती छागलों से ताल-पोखर
सुआपाखी मेड़
एक बिटिया-सी किरण है
रोप देती चांदनी का पेड़

काटते कीचड़ सने तन का बुढ़ापा
हम थके-हारे उसी की छाँव में।

धान-खेतों में हमें मिलती
सुखद नवजात शिशु की गंध
ऊख जैसी यह गृहस्थी
गाँठ का रस बाँटती निर्बंध

यह गरीबी और जाँगरतोड़ मिहनत
हाथ दो, सौ छेद जैसे नाव में।

फैल जाती है सिघाड़े की लतर-सी
पीर मन की
छेंकती है द्वार
तोड़ते किस तरह
मौसम के थपेड़े
जानती कमला नदी की धार

लहलहाती नहीं फसलें बतकही से
कह रहे हैं लोग गाँव-गिराँव में।