Last modified on 17 अक्टूबर 2010, at 22:25

ज़माने वालो / उदयप्रताप सिंह

नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है ।
तुम्हारी घड़ियाँ ग़लत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो !

मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों
मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो !

तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो
इधर मैं रखता हूँ इस क़लम को समझते क्या हो खजाने वालो !

न जाने कितने समुद्र-मंथन का विष पिया है ख़ुशी से हमने
हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो !

जहाँ में इन आँसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी
कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो !

नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी
हमारी आँखों में ज़िंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो !