Last modified on 19 अक्टूबर 2010, at 10:04

गांधारी ज़िन्दगी / बुद्धिनाथ मिश्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:04, 19 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बुद्धिनाथ मिश्र |संग्रह=शिखरिणी / बुद्धिनाथ मि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बीत गई बातों में रात वह खयालों की
हाथ लगी निंदियारी ज़िंदगी
आँसू था सिर्फ़ एक बूँद मगर जाने क्यों
भींग गई है सारी ज़िंदगी ।

वे भी क्या दिन थे,
जब सागर की लहरों ने
घाट बँधी नावों की
पीठ थपथपायी थी
जाने क्या जादू था
मेरे मनुहारों में
चाँदनी लजाकर
इन बाँहों तक आयी थी

अब तो गुलदस्ते में
बासी कुछ फूल बचे
और बची रतनारी ज़िंदगी ।

मन के आईने में
उगते जो चेहरे हैं
हर चेहरे में
उदास हिरनी की आँखें हैं
आँगन से सरहद को
जाती पगडंडी की
दूबों पर बिखरी
कुछ बगुले की पाँखें हैं

अब तो हर रोज़
हादसे गुमसुम सुनती है
अपनी यह गांधारी ज़िंदगी ।

जाने क्या हुआ,
नदी पर कोहरे मँडराए
मूक हुई साँकल,
दीवार हुई बहरी है
बौरों पर पहरा है
मौसमी हवाओं का
फागुन है नाम,
मगर जेठ की दुपहरी है

अब तो इस बियाबान में
पड़ाव ढूँढ़ रही
मृगतृष्णा की मारी ज़िंदगी ।