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कभी तो../ आईदान सिंह भाटी

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कभी तो भूलो
बच्चों को भूगोल पढ़ाना
हंसो गड़गड़ हंसी ।
हंसो !
जिससे बज उठें हिये के तार ।
पहली बारिश से जैसे पनपते हैं
वर्षों से सूखे-थार में पुष्प पल्लव ।
तुम्हारे हंसते ही
हंसने लगेगा
चूल्हे पर तपता तवा
और तवे पर सिकती हुई रोटी ।
तुम्हारे हंसते ही
खिल उठेंगे
बेलों पर फूल ।
खेजड़ों पर मिमंझर
और बच्चों की आंखों में भूगोल
(जरूरत नहीं रहेगी फिर तुम्हें भूगोल रटाने की)
कभी तो बनाओ
मन को चिड़िया
जंगल का विहाग
घर आंगन की गौरैया ।
उड़ो आकाश में
ऊंचे और ऊंचे
बताओ बच्चों को आकाश और
ऊंचाई का अर्थ ।
कभी ‘फ्लैट’ की पांचवीं मंजिल में
बच्चों के सामने बन जाओ ऐसे
जैसे हुड़दंग करते थे बचपन में
फससों और चौपालों पर ।
भूलो कभी तो कुछ जरूरी बातें
बदलो पुरानी पुस्तकों के पन्ने
पढ़ो वह आखर माल
जिसके नीचे कभी खींची थी लकीरें ।
(लकीरें जिनमें छुपे हैं उस समय के अर्थ)
आंखें खोलो और देखो
अभी तक आते हैं
रोहिड़ों पर लाल फूल
वर्षा ऋतु में हरियल होता है

धरती का आंगन
हरे होते हैं सूखे ठूंठ
आज तक ।
आकाश में अभी तक उगता है वह तारा
जिसे तुम बचपन में निहारा करते थे
बाल कथाओं के बीच ।
(अपने बच्चों की आखों में उगाओ वह तारा)
उछलो बछड़ो की भांति
सुनहरे धोरों पर जा कर
कभी तो
कभी तो वे काम भी करो
जिनको करने से डरने लगे हो
आजकल ।

अनुवाद : मोहन आलोक