Last modified on 25 अक्टूबर 2010, at 10:49

प्रश्न / गिरिराज शरण अग्रवाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:49, 25 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गिरिराज शरण अग्रवाल }} {{KKCatKavita‎}} <poem> क्या मेरा चोटी…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्या मेरा
चोटी पर चढ़ना ज़रूरी है
जबकि मेरे टाँगें ही नहीं हैं ।

किसी से उधार ली हुई
कृत्रिम टाँगों को
अथवा
झूठ की बैसाखियों को लेकर
मैं तेनसिंह बनूँ
क्या यह ज़रूरी है !

इस विश्व के
अथाह और विस्तीर्ण
सागर के किनारे
नियति द्वारा छोड़ा हुआ मैं
तैरकर पार जाने की
क्यूँ करूँ व्यर्थ चेष्टा
हाथ ही नहीं हैं जबकि मेरे ।
एक नया द्वीप कोई
खोज लाऊँ
बढ़ूँ आगे
सत्यहीन गर्व के
झंझा में बहता हुआ ।

टूटी हुई नाव का
सहारा भी मिलता नहीं
फिर भी
वास्कोडिगामा के
यश का चाहक बनूँ मैं ?
क्या यह ज़रूरी है!
मन कहता है मुझसे-
'चरैवेति... चरैवेति.. चरैवेति'
बस, याद रख इस कर्म-मंत्र को,
तब-
अनुत्तरित नहीं रहेगा मन का
कोई भी प्रश्न ।