मुझे बाँधकर ले आई है
तुम्हारी आवाज
नदी किनारे यहाँ
कोई नहीं टिकता जहाँ
नाव पर चढ़कर
सब चले जाते हैं अपने घर,
मुक्त आकाश को
पानी में थरथराता छोड़कर पीछे-
अकेला,
बीहड़ रात-
जहाँ सब को ढँक लेती है।
अब मौन हूँ मैं
नदी चुप है
रात चुप है
न तुम
न तुम्हारी आवाज
कुछ नहीं है
रचनाकाल: १९-०८-१९६५