Last modified on 31 अक्टूबर 2010, at 00:57

बाढ़ / मणि मधुकर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:57, 31 अक्टूबर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बड़की बा से सुनी थी मैंने वह कहानी
जिसमें
एक सूना वनखंड था और डरावना डूंगर
गुफा के तिखंडे तल्‍ले
पर सोता था दगरू-दाना
उसके खूँटेनुमा दांतों और गन्‍दे होठों की दरारों से फूटता था
मौत का दरिया

मौत का दरिया कैसा होता है क्‍या उसमें पानी
बहता है

क्‍या वह बूँद-बूँद के लिए मुहताज ढाणियों की सदा-रमजान
प्‍यास बूझा सकता है
मुझे नहीं पता क्‍यों पर बालपने के उस अबूझ
दौर में
मैं कहीं किसी दरिया को पाने की
ख्‍वाहिश रखता था
और करीमन बी की लाडो कुहनी मार कर जब-तब
मेरी मातमी शक्‍ल का मजाक
बनाती थी

वह मजाक वह मातम वह मौत का दरिया
लहरा रहा है, आज
मेरी आंखों के आगे
और मैं एक टूटे हुए मचान पर नामालूम-सा
खड़ा हूं

एक घर : घोंसले की भाँति औंधा तैरता हुआ
एक बैल : चाम के बोरे की तरह
फूल कर
पेड़ की जड़ों से फँसा हुआ
एक लहंगा : मोमाक्‍खी के छत्‍ते-सा फैला हुआ
आकाश के बेलगाम बादलों की दौड़ हिनहिनाहट और
लगातार झरता हुआ जहर

अपने गीले कपड़ों में, तर-तर टपकते हुए अंगों में
कोई विकल्‍प ढूँढ़ना आत्‍महत्‍या है
लेकिन मैं अन्‍धापन स्‍वीकारने से पहले धरती की उस धुरी
को चीन्‍ह लेना चाहता हूँ जो मेरे देखते-देखते जम्‍हूरियत के
जाली जश्‍न में डूब गयी है !

('घास का घराना' से)