Last modified on 1 नवम्बर 2010, at 21:12

बकरियाँ / आलोक धन्वा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:12, 1 नवम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अगर अनंत में झाडियाँ होतीं तो बकरियाँ
अनंत में भी हो आतीं
भर पेट पत्तियाँ तूंग कर वहाँ से
फिर धरती के किसी परिचित बरामदे में
लौट आतीं

जब मैं पहली बार पहाड़ों में गया
पहाड़ की तीखी चढाई पर भी बकरियों से मुलाक़ात हुई
वे काफ़ी नीचे के गाँवों से चढ़ती हुई ऊपर आ जाती थीं
जैसे जैसे हरियाली नीचे से उजड़ती जाती
गर्मियों में

लेकिन चरवाहे कहीँ नहीं दिखे
सो रहे होंगे
किसी पीपल की छाया में
यह सुख उन्हें ही नसीब है।