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उलझन / जावेद अख़्तर

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करोडो चेहरे और उनके पीछे करोडो चेहरे ये रास्ते है की भीड़ है छते जमीं जिस्मो से ढक गई है कदम तो क्या तिल भी धरने की अब जगह नहीं है ये देखता हूँ तो सोचता हूँ की अब जहाँ हूँ वहीँ सिमट के खड़ा रहूँ मै मगर करूँ क्या की जानता हूँ की रुक गया तो जो भीड़ पीछे से आ रही है वो मुझको पेरों तले कुचल देगी, पीस देगी तो अब चलता हूँ मै तो खुद मेरे पेरों मे आ रहा है किसी का सीना किसी का बाजू किसी का चेहरा चलूँ तो ओरों पे जुल्म ढाऊ रुकूँ तो ओरों के जुल्म झेलूं जमीर तुझको तो नाज है अपनी मुंसिफी पर जरा सुनु तो की आज क्या तेरा फेसला है