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हमेशा गहरे कुओं का जल
होता है मीठा-शीतल
पर सुस्त और आलसी चरवाहा
जल किसी डबरे से लाता है
अपने रेवड़ को भी वह
गंदा जल वही पिलाता है
लेकिन सज्जन है जो जन
वह करेगा सदा यही प्रयत्न
डोल अपना किसी कुएँ में डालेगा
रस्सियों को आपस में कसकर बाँध
जल वहाँ से निकालेगा
अनमोल हीरा
गिर गया जो अँधेरी रात में
ढूँढ़ता है यह दास उसे
दो कौड़ी के मोमबत्ती के प्रकाश में
धूल भरी राहों को वह
बड़े ध्यान से देखता
और उन पर रोशनी
अपनी शमा की फेंकता
अपने सूखे हाथों से वह
लौ को है घेरता
हवा और अँधेरे को
पीछे की ओर ढकेलता
याद रहे यह
कि आख़िर वह सब कुछ पा लेगा
एक दिन आएगा ऐसा
जब वह हीरा ढूँढ़ निकालेगा ।
(25 अगस्त 1915)
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय