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नील / नवारुण भट्टाचार्य

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मैं हूँ तेरा सहज शुभाकांक्षी, नील
गिद्ध की चोंच और नाख़ूनों ने जिसे दिया था नोंच
कलेजे में खिलते हैं प्रतिहिंसा के फूल
रक्त और स्मृति के बीच
 मैं ज़रूर ढूँढ लूँगा कोई मेल
मैं हूँ तेरा सहज शुभाकांक्षी, नील




छुई जा सकती है बारूद की तरह मेरे देश की रात
नील ने देखी थी वह आश्चर्य रात
छुई थी सड़े-गले लोगो की आँखें असंख्य
प्रचण्ड लहरों ने सीने में जकड़ा था वह शव
बर्छी की नोक जैसी तीखी हवा में
 
तुम्हें फिर से छू लूँगा, नील।



नील , मैं छुए हूँ मस्तकविहीन स्वदेश का कबंध
छुए हूँ धान, मृत्यु, जन्म,क्रोध,खेत
नील,तेरे स्पर्श से हुआ हूँ मैं नीला रक्तमुख।


सियार के दाँतों-नाख़ूनों ने चींथ दिया था उसे
कलेजे में खिलते हैं प्रतिहिंसा के फूल
रक्त और स्मृति के बीच ज़रूर ढूँढ लूँगा कोई मेल
मैं हूँ तेरा सहज शुभाकांक्षी, नील।