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हुदूद / संजय मिश्रा 'शौक'

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पहाड़ियों से उतर रहे आबशार को मैं
खुली फ़जा में जो देखता हूँ
तो मुझको अपने असीर होने का
गम भी होता है जाने-जानां
ये जो असीरी हुई मुसल्लत
ये ख्वाहिशों का अजाब मुझ पर
हुआ है नाजिल
वो कह रहे हैं कि ख्वाहिशों को
दिमागों-दिल से निकाल दो तुम
कोई भी ख्वाहिश
कहीं ठिकाना न पा सकेगी
तो तुम को कितना सुकून होगा
मुझे ये सुन कर समझ न आया कि क्या कहू मैं ?
दिमागों-दिल में कोई भी ख्वाहिश नहीं रही तो
मैं जी न पाऊंगा इस जमीं पर !
सलाह देना अलग है लेकिन
किसी जीवन से खेल करना भी ठीक कब है ?
ये ख्वाहिशें जिन्दगी के मेरे
सफ़र को आगे बढ़ा रही हैं,
जो बेजा ख्वाहिश है उसको
दिल से निकलना ही है ठीक लेकिन
गलत नहीं है हर एक ख्वाहिश!
मुझे पता है कि इस जहां में
नहीं है ऐसा
कोई बचा हो जो इस असीरी के जाल से ही,
ये जिन्दगी है कि बहता पानी
जो अपनी मंजिल को गामजन है
जभी तो ये आबशार मुझको
भी खिंच लेता है अपनी जानिब,
नहीं है बंधन कोई भीसको
मैं ये समझता था पर खुला ये
कि ये भी अपनी हुदूद के इक हिसार में है,
हुदूद बेजा न हो फिर हर हुदूद की
अहमियत है जानां!
सो इस जहां में जो कुछ भी है सब
अजल से अपने हुदूद में है !!!