रचनाकार: शैलेन्द्र
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राह देखते 'श्री लक्ष्मी' के शुभागमन की,
बरबस आंख मुंदी निर्धन की!
तेल हो गया ख़त्म, बुझ गे दीपक सारे,
लेकिन जलती रही दीवाली मुक्त गगन की!
चूहे आए कूदे-फांदे, और खा गए--
सात देवताओं को अर्पित खील-बताशा;
मिट्टी के लक्ष्मी-गनेश गिर चूर हो गए
दीवारें चुपचाप देखती रहीं तमाशा !
चलती रही रात भर उछल-कूद चूहों की
किन्तु न टूटी नींद थके निर्धन की;
सपने में देखा उअसने आई है लक्ष्मी
पावों में बेड़ियां, हाथ हथकड़ियां पहने !
फूट-फूट रोई वह और लगी यों कहने :
"पगले, मैं बंदिनी बनी हूं धनवालों की