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बुलावा / रमानाथ अवस्थी

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बुलावा

प्यार से मुझको बुलाओगे जहाँ
एक क्या सौ बार आऊँगा वहाँ

पूछने की है नहीं फुर्सत मुझे
कौन हो तुम क्या तुम्हारा नाम है
किस लिए मुझको बुलाते हो कहाँ
कौन सा मुझसे तुम्हारा काम है

फूल से तुम मुस्कुराओगे जहाँ
मैं भ्रमर सा गुनगुनाऊंगा वहां

कौन मुझको क्या समझता है यहाँ
आज तक इस पर कभी सोचा नहीं
आदमी मेरे लिए सबसे बड़ा
स्वर्ग में या नरक में वह हो कहीं

आदमी को तुम झुकाओगे जहाँ
प्राण की बाजी लगाऊंगा वहां

जानता हूँ एक दिन मैं फूल सा
टूट जाऊँगा बिखरने के लिए
फिर न आऊँगा तुम्हारे रूप की
रौशनी में स्नान करने के लिए

किन्तु तुम मुझको भूलोगे जहाँ
याद अपनी मैं दिलाऊंगा वहाँ

मैं नहीं कहता कि तुम मुझको मिलो
और मिल कर दूर फिर जाओ चले
चाहता हूँ मैं तुम्हें देखा करूँ
बादलों से दूर जा नभ के तले

सर उठाकर तुम झुकाओगे जहाँ
बूँद बन-बन टूट जाऊँगा वहां