आज
वृद्धाश्रम के दरवाज़े पर
किसी के सहारे खड़े
मेरे यह दोनों पाँव
रहते थे कभी अडिग....!
लगता है...
बेटी होती तो
संभालती मुझे माँ बनकर
उन्मत खड़ा रहता मैं
देव मंदिर में....!
शादी के ढोल बजने लगे
और मेरे ह्रदय की खिड़की खुल गई
देखा मैंने...
बेटी को बाप दे रहा था आशीर्वचन
बिदाई के समय
ईर्ष्या होती है मुझे उसका सुख देख
पीड़ा देती है यह याद मुझे
कि करवाई थी मैंने भी एक भ्रूण-हत्या
मेरे सिर भी है उसका पाप !!
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : स्वयं कवि