अपने बारे में क्या बताऊं? कविताएं लिखता हूं .हिमालय में रहता हूँ. कविता में हिमालय को डिस्कस करना चाहता हूँ. हिमालय की आध्यात्मिक और सैलानी रहस्य रोमाँच की छवि से इतर एक अन्दरूनी हिमालय जिसे मैं जानने का प्रयास करता हूँ. उस के फ्रेजाएल पर्यावरण को , संवेदन शील इकोसिस्टम को, उस की टिपिकल जिओपॉलिटिकल हालतॉं को , उस के संकट्ग्रस्त फ्लोरा और फॉना को, और इन सब के बीच जी रहे एक सुच्चे , भोले , निश्छल जन जीवन को , जो अभी बहुत कम प्रदूषित है, और आज भी विकसित विश्व की ओर आशा भरी नज़रों से देखना चाहता है! यहाँ अंतिम कविता में इसी तरह की चिंताएं हैं. 1984 से कविताएं लिखनी शुरू की थीं. जब क़ॉलेज से निकलने ही वाला था. चण्डीगढ़ में वे खालिस्तानी उग्रवाद के दिन थे. होस्टलों में आतंक के बीच रातें काटीं. सिख छात्र अपनी अल्मारियों में दर्जनों क़ृपाण और क़ट्टे भरे रखते थे. कुछ अंतरंग मित्रों को कॉमन रूम में सरे आम कत्ल होते देखा है......मै बौद्ध था , और धर्म का यह वाहियात रूप नहीं सह सकता था. ऐसे में कुमार विकल की कविताएं ताक़त देती थीं. एक दिन एक कविता पाठ में उन्हें झर झर आँसू बहाते देखा था...एक निरीह बच्चे की तरह . उस दिन तय किया था कि कविता लिखूँगा मैं भी. क्यों कि कविता में ही मानवता के बचे रहने की उम्मीद है.....फिर पंजाब विश्व विड्यालय के हिन्दी विभाग में प्रवेश लिया. कबीर को समझा, भक्ति काल को ले कर हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का डिस्कोर्स उन दिनों विभाग फिज़ाओं पर हावी था. और मेरे संस्कारों के मुआफिक बैठता था. पंजाबी साहित्य के छात्र भी हॉस्तल के मेरे ही ब्लॉक मे रहाते थे. उन की सोह्बत में पाश, शिव बटालवी, पातर जैसे कवियों को समझने का मौका मिला. कवि सत्य्पाल. सहगल से आधुनिक कविता पढ़ी. अज्ञेय और मुक्तिबोध की कविता ने बहुत गहराई से प्रभावित किया. एम्. ए. से आगे नहीं पढ़ सका. पता नहीं कब मैं खेमे बाज़ी का शिकार हो गया. विभाग की अन्दरूनी राजनीति से मुझे कोफ्त हो आती थी. अब जल्दी से अपने हिमालय की शरण में चले जाना चाह्ता था. बहुत भटकने के बाद 1995 में मेरा सपना पूरा हुआ . केलंग ( मेरे स्कूलिंग की जगह ) में राज्य सरकार के उद्योग विभाग में यह छोटी सी नौकरी मिल रही थी. आँखें बन्द कर के मैं ने ज्वाईनिंग दे दी. तब से हिमालय को जान रहा हूँ, समझ रहा हूँ. और कविताओं में उसे उतारने का प्रयास कर रहा हूँ. मैं मानता हूँ कि अभी भी यहाँ बहुत कुछ है, जिस का बचना मानवता के हित मैं लाज़िमी है. यह सब पता नहीं कब तक बचा रहेगा? लेकिन सब कुछ खत्म होने से पहले मैं बहुत कुछ सहेज लेना चाहता हूँ. साहित्यिक पत्रिकाओं से मेरा परिचय एम ए के दौरान हंस से शुरू हुआ. उन दिनो हंस का पुनर्प्रकाशन शुरू ही हुआ था. बाद में हंस और उस से जुड़े लोगों का पाखण्ड उजागर हुआ तो मैंने उस का बहिष्कार कर दिया. 2004 में वसुधा और 2005 में उन्नयन ने मेरी कविताएं पहले पहल छापी. फिर पहल अंक 85 में आपने मुझे बड़े पैमाने पर प्रस्तुत किया.... तो मेरा आत्म विश्वास इतना बढ़ा कि , खुद को पूरा इधर झौंक दिया. ज्ञानोदय, कथन ,सर्वनाम, अन्यथा, उद्भावना, कृति ओर, आकण्ठ, अनभै साँचा, जनसत्ता, सनद, युद्ध रत आम आदमी, आदि में छ्पता रहा हूँ. कुछ समय कविता की वेब पत्रिका कृत्या से भी जुड़ा रहा. लाहुल स्पिति की पहली विशुद्ध साहित्यिक हिन्दी पत्रिका असिक्नी के संपादन में सहयोग करता हूँ. संग्रह अभी नहीं आया है.