पहाड़ी झरने की तरह
चट्टानों से टकराते
पहले-पहल मिले थे विजयकांत
विजयकांत
नद की तरह बहे तब से अब तक
समुद्र होने की प्रक्रिया में
ज्वारग्रस्त होते
फिर-फिर मिले विजयकांत
मेरे रेखांकित पानी को अर्थ देते
अपनी पृथ्वी की सार्थकता को सींचते अनवरत
जीते वैसे ही क़रीब-क़रीब
जैसे मिले थे पहली बार
विजयकांत...
रचनाकाल : 30.05.1987
शलभ श्रीराम सिंह ने यह कविता हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका 'पुरुष' के सम्पादक विजयकांत जी के लिए लिखी थी, जो 'पुरुष' के जून'1998 के शलभ केन्द्रित अंक में प्रकाशित हुई थी।