Last modified on 24 जून 2009, at 22:16

अंतराल / मंगलेश डबराल

हरा पहाड़ रात में

खिसककर मेरे सिरहाने खड़ा हो जाता है

शिखरों से टकराती हुई तुम्हारी आवाज़

सीलन-भरी घाटी में गिरती है

और बीतते दॄश्यों की धुंध से

छनकर आते रहते हैं तुम्हारे देह-वर्ष

पत्थरों पर झुकी हुई घास

इच्छाओं की तरह अजस्र झरने

एक निर्गंध मृत्यु और वह सब

जिससे तुम्हारा शरीर रचा गया है

लौटता है रक्त में

फिर से चीखने के लिए ।


(रचनाकाल: 1973)