Last modified on 6 अगस्त 2012, at 16:33

अंधड़ / अज्ञेय

झरने दो
साँस-साँस से भरने दो धूल! धूसरित करने दो
देह को-जो दूध की धुली तो नहीं! सिहरने दो।
झरने दो।

तिरने दो
पौन के हिंडोलों में पत्तियों को गिरने दो।
टूटने दो टहनियाँ फूटने दो शूल। फिर वायुमंडल को थिरने दो
निथुरे समीर पर बिथुरे सुवास, अरे फूल! मधु है, सुमिरने दो!
तिरने दो!

रसने दो
आकाश का विदग्ध उर उमसने दो कसने दो
घुमडऩे-उमडऩे दो, दुर्निवार मेघ को रस-धार बरसने दो!
स्नेह की बौछार तले धरती को पागल-सी हँसने दो-
मेरा मुग्ध मानस विकसने दो!
रसने दो!

आने दो
हहराती इस लहर को काट कर गिराने दो कूल।
उसी के वक्ष पर फिर पछाड़ खाने दो, सुध बिसराने दो-
गल कर वत्सल हो जाने दो।
आने दो!

दिल्ली, 26 मार्च, 1953