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अंधेरी मेहराबें / योगेंद्र कृष्णा


खंडहर इस किले की
अंधेरी मेहराबों पर
नींद में चलती हुई
वो जहां-जहां
चांदनी से टकराई है

वहां-वहां
ओस-सी नन्हीं चिंदियां
हल्की हवाओं के स्पर्श से
पारे-सी लरज जाती हैं...

वो कहते हैं
कि मेहराबें जगह-जगह
ओस से गीली हैं...

मैं कहता हूं
वो कल रात
इन्हीं मेहराबों पर
नींद में चलती हुई
किसी के कंधे पर
सिर रख कर रोई थी...

अब किस-किस को
कैसे बताऊं
कि उसके आंसुओं से
मेरा कंधा अभी भी गीला है...