जब भी उसे
अपनी दीवारों का अहसास होता
वह सब कुछ फलाँग कर
मेरे पास आती
उस समय
उसकी आँखों में
समाज की सीमाओं के प्रति
हिकारत होती
अपनी ही दीवारों के लिए
नफ़रत होती
साथ ही शायद
मन के किसी कोने में
मेरे लिए थोड़ी सी
मोहब्बत भी होती
वह उन पुलों को
लानत बोलती
जो कहते -
पानी तो पुलों के नीचे से ही गुज़रता है
बिस्तर पर बैठती
वह मंगलसूत्रा निकालती
अपनी चूड़ियाँ
बेदर्दी से उतार देती
धीरे धीरे वह अपने पति का
सब कुछ निकाल फेंकती
लेकिन मिलन की
इन घड़ियों के बाद
जाने लगी
मुझसे छिपा कर
वह अपनी आँखों के आँसू पोंछती
उस पल
उस की आँखों में
मेरे प्रति एक नफ़रत जागती
उदास-सा मुस्करा कर
वह चली जाती
उसकी आँखों के आँसू
उसकी आँखों की मोहब्बत
उसकी आँखों की नफ़रत
देर तक मेरे मन को
बेचैन करती ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा