न्याय के पथ पर
रास्ते भर झूठ बोलते हुए ही वे आए
और सीधे मनोनीत हो गए
कैसा सुन्दर शब्द है मनोनीत
इस सुन्दर गति को
मनोनयन की प्रक्रिया के साथ ही
माननीय प्राप्त हुए
उन्होंने झूठ का ही पक्ष चुना
पक्ष के पक्ष में
बहुत सुन्दर निर्णय दिया
बदले में पद विरुद्ध पद पर
उनका मनोनयन हुआ
अन्तरात्मा की पुकार का
भीतर से उठती आवाज़ का
किया जो अनुगमन
विधि के विधान से ही सब हुआ
भगवान जाने क्या हुआ
शायद
भगवान की इच्छा से ही अन्याय हुआ
ऊँचे - ऊँचे ओहदों पर बैठे थे आतताई
ऊपर भी थे उससे ऊपर भी
बीच में भी
उसके नीचे भी
कहाँ नहीं थे ?
जल में, थल में, नभ में
कण - कण में थे व्याप्त
छल - छद्म से होता था आरम्भ
और विस्तार का तो
कहीं कोई अन्त ही नहीं
विचारहीनता का फैला था साम्राज्य
इस तरह रहा नहीं था कहीं
न्याय और अन्याय का फ़र्क
तन्त्र और जनतन्त्र का
यहीं आकर
इस तरह होता था अन्त ।