तें अपनी टेंट देख कानी
कस मानी हम
होते सोलह दूनी आठ ।
अथ-इति का फ़र्क घुला
शुरू कहाँ ख़त्म कहाँ
अपनी सँघर्ष कथायात्रा के सारे सोपानों की
है इतनी गड्डमड्ड भाषा ।
खदर-बदर मची हुई
चढ़ी हुई हाण्डी में
जासूसी कुत्तों की अगल-बगल सूँघ-सांग जारी है
प्लॉट हँसी का अच्छा ख़ासा ।
हाथों की एक-एक उभरी नस बता रही
पजर रहा पोखर का पानी
ज़िस्मानी रँग
काई के बेतरह उचाट ।
तें अपनी टेंट देख कानी
कस मानी हम
होते सोलह दूनी आठ ।
गरिया-गरिया ख़ुद को
पूरी निर्ममता से
जनपथ पर हुदियाए साँड़ की सधी गति से आते हैं
दृश्यों को जग्ग-बग्ग तकते ।
अपनी औक़ात के
हमीं गूँगे साक्षी हैं
ज़हर में बताशे के खिर-खिर कर घुलने की किसे कहें
बाज़ आ गए बकते -झकते ।
अँतड़ी की हर मरोड़ पर तिहरे हो-हो कर
काटी हैं रातें तूफ़ानी
बर्फानी है
खटिया पर बिछी हुई टाट ।
तें अपनी टेंट देख कानी
कस मानी हम
होते सोलह दूनी आठ ।