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अपनी शवयात्रा में / मुकेश प्रत्यूष

आया तो था कई बार मणिकर्णिका
पर तय कहां कर पाया था
अपने दाह की जगह
चुन कर करता भी क्या
न तो था कर्ण
मि बनकर भी कारक मृत्यु का कोई कृष्ण पूरी कर देते इच्छा
न हूं
वंशज राजघरानों या किसी पूर्व प्रधानमंत्री का कि
सुरक्षित रख ली जाती मेरी पसंद की जगह
या करने से पूर्व दाह
ढूंढ़ी जाती समाधि के लिये कोई जमीन
हिन्दी के एक अदना से कवि का जीना था ही क्या जो मरने को कहा जाता राष्ट्रीय शोक
अच्छा ही हुआ
मैं कम से कम इतना तो कर ही सका भला दुनिया का कि नहीं उजाड़ी कोई बसने लायक जमीन

अगर देता बता कि मणिकर्र्णिका की कोने वाली वह खाली पड़ी जमनी पसंद है मुझे अपने दाह के लिये
तो होती कितनी आत्मग्लानी आज मेरेे परिजनों को
जलती देख किसी और कि चिता वहां

फौरी तौर पर ही कियो जा सकते हैं इन प्रश्नों पर विचार और लिये जा सकते हैं निर्णय
लेकिन
आज जब आन पड़ी है जरुरत तो
पड़ा भींगा-बंधा सीढ़ियों पर इसकी
ढका आपाद मस्तक
करता प्रतीक्षा बारी की
तो दे नहीं सकता अपनी राय
अभी जैसे ही राख में तब्दील होगा कोई शरीर
डोम राजा लायेंगे भर घड़ा पानी
छिड़केंगे चिता पर बुझाने के लिये नहीं
ढूंढ़ने के लिये शरीर का कोई एक हिस्सा
जिसे जा सके सौंपा
प्रवाह के लिये
फिर उसी बुझती-जलती चिता पर बोझ दी जायेगी मेरे लिये तय की गई लकड़ियां
और फिर मुझे
पूछेगा नहीं कोई
कि मुझसे पहले या उससे पहले या उससे पहले या .. जला जो
बूंद-बंद टपक कर मिलेगा जिसके शरीर से मेरा शरीर
वह था कौन
स्त्री या पुरुष
जवान या बुजुर्ग
थी क्या उसकी जाति, उसका वर्ण
गोरा या काला था वह
कुछ नहीं पूछेगा कोई
कोशिश भी नहीं करेगा जानने की
करेंगे सब इस निस्सार संसार की बात
जीवन के इस अंतिम सत्य की बात
जरुरी होगा उनके लिये
हो सके जितनी जल्दी हो जाना मेरा राख में तब्दील
कहीं जाने की हड़बड़ी में रहेंगे सब
जैसे रहता था मैं

सुनता सुपन भगत मोल-भाव
कम में चलाना है काम तो ले सकते हैं अधजली लकड़ियां
करें क्या हम
सरकार ने लगा रखी है इतनी पाबंदियां कि आसमान तो छूयेंगे ही ैं नई लकड़ियों के दाम
दोष तो देते हैं सब हमें ही
लेकिन सोचते नहीं
चलाना है हमें हैं इन्हीं मुर्दों से अपना परिवार
अलग थी बात राजाओं-महाराजाओं की
अब तो आते हैं जो भी
आते हैं गरीब
समझते नहीं क्यों फूंके केवल गरीबों को
तो सबसे पहले फूंकना पड़ेगा अपना परिवार