अपनी तरह से नहीं
उनकी तरह से करना था अभिनय
वही थे नियन्ता
हमें तो करते चले जाना था अनुसरण
संकेतों से समझने थे निहितार्थ
संकेतों से करनी थी एक झूठ की निष्पत्ति
अन्धकार से भागना था
प्रकाश वृत्तों की ओर
बोलते-बोलते वहाँ से?
लौट आना था अन्धकार में
कहा जाता चार क़दम चलने को
तो चलना था चार ही क़दम
बोलना था
बोलकर ठिठक जाना था
ठिठककर
फिर चले जाना था नेपथ्य में
कभी मारना था जोर से ठहाका
कभी रोना था बुक्का फाड़कर
कुछ भूमिकाओं में तो
चुप ही रहना था पूरे वक़्त
इस तरह की भी थी एक भूमिका
कि एकाएक मनुष्य से
तब्दील हो जाना था एक घोड़े में
घोड़े से फिर एक व्यापारी में
व्यापारी से फिर एक निरीह ख़रीदार में
यही थी अभिनय की नियति
जीवन ही था एक नाटक का होना
जहाँ अन्ततः
तब्दील होना था हमें एक ग्राहक में।