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अभिभूति / राजकुमार कुंभज


स्कूली दिनों में स्कूल नहीं गया
दफ़्तरी दिनों में कभी भी गया नहीं दफ़्तर
घंटाघर के पीछे आँखमिचौली करते हुए खेलता रहा कंचे
या कि फिर खुले मैदान में उड़ाता रहा पतंग
और लड़ाता रहा पेंच-दर-पेंच
निठल्ली हवाओं में खो जाने वाला वह निठल्ला वक़्त
सचमुच करता है कितना अभिभूत?