यह नहीं है आकाश-
जिसमें जड़ा हो चाँद,
जिसमें जड़ा हो सूरज,
जिसमें जड़े हों नक्षत्र!
यह तो है-
प्रभात के पक्षियों के
असंख्य मेल-बेमेल से स्वरों में
हर सवेरे आश्वस्त,
वचन भंग से संत्रस्त,
गुलेल आहत चिड़िया सी-
लहूलुहान,
जाग उठ्ठी फण उठाई जनता का-
आततायी सत्ता के नाम
तुरन्त जवाबदेही के लिए
डंकों से लिखा
खुला, हस्ताक्षरित
अभियोग पत्र!
यह नहीं है आकाश-
जिसमें जड़ा हो चाँद,
जिसमें जड़ा हो सूरज,
जिसमें जड़े हों नक्षत्र!
1981