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अभिलाषाएँ / कविता भट्ट

1
दैवीय नहीं
भयावह आपदा
मानव कृत
2
धरा कुपित
रुदन चहुँ ओर
अम्बर क्रुद्ध
3
निष्ठुर हुए
शैल पिता, नदी माँ
पाप-संताप
4
निष्प्राण मान
पर्वत का हृदय
छेदे मानव
5
रोई नदी माँ
अश्रुधार से ढहे
गर्व महल
6
अभिलाषाएँ-
विष-वृक्ष तने की
अमरबेल ।
7
प्रफुल्लित है
उन्मुक्त शिखर -सी
आत्मा की लाश
8
विलाप हुआ,
भयावह रूप तो
अभी है बाकी ।
9
किसको कोसे
हर शिला के नीचे
भुजंग बसे ।
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