जब बहुत कुछ कहना चाहती हूँ
वाणी मूक हो जाती है-
शब्दों के चयन में भी
कहीं न कहीं
चूक हो जाती है-
भावनाओं का बादल निरन्तर-
अन्दर ही अन्दर-
उमड़ने-घुमड़ने लगता है-
और सैलाब बनकर
यदा-कदा
आँखों से बरसने लगता है-
हृदय की चोट को-
अन्तरतम की कचोट को-
व्यक्त करने में
फिर भी रह जाता है
असमर्थ-
और हो जाता है
अर्थ का अनर्थ-
कहना क्या चाहती हूँ
और लोग समझ क्या लेते हैं-
फिर प्रश्नों के कठघरे में
मुझको खड़ा कर देते हैं-
और मैं दे नहीं पाती हूँ
समुचित उत्तर/प्रत्युत्तर-
और लोग समझते हैं
कि हो गई हूँ निरुत्तर-
क्योंकि
जब बहुत कुछ कहना चाहती हूँ
वाणी मूक हो जाती है-
शब्दों के चयन में भी
कहीं न कहीं
चूक हो जाती है।