कलम चल पड़ी, और आज लिखने बैठी हैं युग का जीवन,
विहँस अमरता आ बैठी त्योहार मनाने मेरे आँगन।
पानी-सा कोमल जीवन
बादल-सा बलशाली हो आया,
भू पर मेरी तरुणाई का
हँस-हँस कर अमरत्व सजाया।
जगत ललक कर दौड़ा मेरी
अंगुलियों पर चक्कर खाने,
मेरी साँसों, समय आ गया
युग-प्रभु का अभिमान सजाने।
अमर-अमर कह, झर-झर झरते, बादल ने अभिषेक सजाया,
अमर हो पड़ीं साधें, अमर, अमर जीवन का रस चढ़ आया।
रचनाकाल: खण्डवा-१९३२