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अर्थशास्त्र की मरूभूमि में / हरीश प्रधान

सूख रही कविता की धारा
ठौर-ठौर
आकर्षण रहता
बौराया-सा मन रहता था
प्‍यार!
सभी कुछ था जीवन में
धन दौलत
का अर्थ नहीं था
आँखों ही आँखों में
गुपचुप
सारी व्यथा कथा कहता था
रूप!
तुम्‍हारा छाया रहता-
गीत-गज़ल कहता रहता था
धन का शास्त्र
पढ़ा है जब से
कवि!
बे अर्थ हुआ बेचारा
अर्थशास्त्र की
मरूभूमि में
सूख रही कविता की धारा
ढाई आखर की
दुनिया में
गुरु का ज्ञान समाया रहता
हर क्षण कविता
मुखरित होती
हर क्षण ही
बौराया रहता
रुप!
तुहारा जीवन धन था
मस्ती भरा हुआ यौवन था
दिल की दुनियाँ का राही
कदम-कदम रंगीन सपन था
अर्थशास्त्र की
पोथी पढ़कर
प्‍यार!
शुद्ध व्यापार हो गया
कभी हुआ करता था दिल ये
अब दुकान हुआ बेचारा
अर्थशास्त्र की मरूभूमि में
सूख रही कविता की धारा!